मेरी कामत के चर्चे
शहर के हर कूचे में थे
मकाँ, हमसे किसी के
ऊँचे ना थे
था ग़ुरूर हमको भी
अपनी ज़रा नावाज़ी का
अंज़ूमन में होते हैं चर्चे
कहना था ख़बरसाजी का
हुआ कुछ यूँ था उस दिन
महफ़िल सजी एक ख़ास थी
अंदर रंगिनिया थी और बाहर
क़यामत-ए-बारिश की रात थी
जुगलबंदी थी क्या ख़ूब
ज़ाम थे खनक रहे
रंग में भंग करने तभी
मनहूस कुत्ते भौंक पड़े
था फ़क़ीर एक, जो
कुछ कुत्ते पालता था
लावारिस ख़ुद था
और रोटी उनको डालता था
भर गया इताब से
त्योरियाँ भी गयी थी चढ़
जहालियत की हद है
इनको क्या आता नहीं समझ
ग़ुस्से में निकला मैं
अंज़ूमन-ए-ख़ास से
सिखाना था इन्हें आज
सबक़ नए अन्दाज़ से
भीगते हुए कुत्ते को
देखकर दौड़ा वो आया
रहा भीगता ख़ुद उसे
अपना कम्बल उढ़ाया
लाठी लेकर मैं खड़ा
शर्म से बेज़ार था
इंसानियत से महरूम
ख़ोखली तहज़ीब का किरदार था